“माँ “

{{16 October 2022}}


हुक्म तो ये था की तोड़ देना नमाज़ ए फ़र्ज़ भी उसकी सदा पर,
पर अफसोस की उसकी हाय भी अब हमें सताने लगी।
जो रखती थी पत्थर अपनी हर ख़्वाहिश पर तेरी ख़ुशी की खातिर
आज उसकी दवाई भी तुझे खर्चे याद दिलाने लगी।

जो जागती थी रात को तेरे सिरहाने बैठ कर
उसके सिरहाने कोई बैठ जाए…… आज उसकी आँखें यही तकती रही।
बना दिया अपने मुह का निवाला भी तेरी ग़िज़ा जिसने
आज उसके हर एक निवाले पर तेरी जान जाने लगी।
जब लड़खड़ाता था तू तो थम लेती थी बाहो मैं तुझे
आज मोहताज है वो, थाम ले उसे कोई, यही सोच वो हाथ फैलाती रही।
अब भी जाग जा होश में आजा ऐ माटी के पुतले
यही वो हस्ती है जो तेरे हर दिन मैं भागती और और हर रात मैं जागती रही

{{Mohd. Kasim}}
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